ये इंसा है केवल चमन देखता है,
सरेराह बेपर्दा तन देखता है।
हवस का पुजारी हुआ जा रहा है,
कली में भी कमसिन बदन देखता है।
जलालत की हद से गिरा इतना नीचे,
कि मय्यत पे बेहतर कफन देखता है।
भरी है दिमागों में क्या गंदगी सी,
ना माँ-बाप,भाई-बहन देखता है।
बुलंदी की ख्वाहिश में रिश्ते भुलाकर,
मुकद्दर का अपने वजन देखता है।
ख़ुदी में हुआ चूर इतना,कहें क्या,
पड़ोसी के घर को 'रहन' देखता है।
नहीं "तेज" तूफानों का खौफ़ रखता,
नहीं वक्त की ये चुभन देखता है।
हर इक शख्स इसको लगे दुश्मनों-सा,
फ़िजाओं में भी ये जलन देखता है।
हवस की हनक का हुनर इसमें उम्दा,
जमाने को खुद-सा नगन देखता है।
रचनाकार अज्ञात...
इस रचना के बारे में कैफियत...
ये रचना फेसबुक में दो ग्रुप मे दिखाई दी
यूकोट में सिद्धांत पटेल ने इसे प्रकाशित किया
गूगल+ में भी ये रचना देखी गई
एक ब्लॉग मे भी दिखी
इस रचना के बारे में कैफियत...
ये रचना फेसबुक में दो ग्रुप मे दिखाई दी
यूकोट में सिद्धांत पटेल ने इसे प्रकाशित किया
गूगल+ में भी ये रचना देखी गई
एक ब्लॉग मे भी दिखी
आज की डार्क साइड का चित्रण.
ReplyDeleteजो भी है इसका लेखक वो बहुत गहरे में उतरा है.
साँझा करने के लीये आभार.
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल।आज की हक़ीक़त बयान कर दी हैं रचनाकार ने।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (26-09-2018) को "नीर पावन बनाओ करो आचमन" (चर्चा अंक-3106) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
अज्ञात लेखक पर ज्ञात घातें
ReplyDeleteपाठक विस्मित सा लेखन देखता है !
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन एकात्म मानववाद के प्रणेता को सादर नमन : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteबहुत खूब 🙏🙏🙏
ReplyDeleteसमाज का आईना है मनुष्य देखने से डर रहा है
ReplyDeleteउम्दा
सादर