उठो द्रौपदी वस्त्र संम्भालो
अब गोविन्द न आयेंगे।
कब तक आस लगाओगी तुम
बिके.. हुए अखबारों से।
कैसी रक्षा मांग रही हो
दु:शासन.... दरबारों से।
स्वंय...जो लज्जाहीन पड़े हैं
वे क्या लाज बचायेंगे।
उठो द्रोपदी वस्त्र संम्भालो
अब गोबिन्द न आयेंगे। Il१॥
कल तक केवल अंधा राजा
अब गूंगा बहरा भी है।
होंठ सिल दिये हैं जनता के
कानों पर पहरा भी है।
तुम्ही कहो ये अश्रु तुम्हारे
किसको क्या समझायेंगे।
उठो द्रोपदी वस्त्र संम्भालो
अब गोबिन्द न आयेंगे। ll२॥
छोड़ो मेंहदी भुजा संम्भालो
खुद ही अपना चीर बचा लो।
द्यूत बिछाये बैठे शकुनि
मस्तक सब बिक जायेंगे।
उठो द्रोपदी वस्त्र संम्भालो
अब गोविद न आयेंगे। ॥३॥
- स्मृतिशेष आदरणीय अटबिहारी वाजपेयी
बेहतरीन सृजन । नमन सृजनकर्ता श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी को ।
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत रचना शत् शत् नमन 🙏
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-09-2018) को "काश आज तुम होते कृष्ण" (चर्चा अंक-3084) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन पं. गोविंद बल्लभ पंत और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteकल तक केवल अंधा राजा
ReplyDeleteअब गूंगा बहरा भी है।
अटल जी ने कितनी सटीक बात कही है. आज तो देश की जनता की स्थिति भी चीर-हरण के समय की असहाय द्रोपदी की जैसी ही तो है. दुश्शासन, दुर्योधन आदि का अब उसे स्वयं संहार करना होगा. दैव-दैव आलसी पुकारा.
बहुत ही खूबसूरत 🙏🙏🙏
ReplyDeleteकृपया पुष्यमित्र उपाध्याय जी की लिखी इस कविता का श्रेय उनको ही दीजिये।
ReplyDeleteपुष्पमित्र की कविता है यह
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