क्षितिज के उस पार
जहाँ मेरी जाने के ख्वाहिश हैं
वहां न ख्वाहिशों की बेड़ियाँ हैं
और न ही रिश्तों का दोहरापन
वहाँ न ही उम्मीदें हैं
और न ही किसी प्रकार का सूनापन
वहां बसता है गर कुछ तो
बस शांति का एहसास ....
मेरे चेहरे पे अब थकान दिखने लगी हैं
मेरे आवाज में बेबसी सजने लगी है
की मुझे ये दुनिया पसंद नहीं
की मै थक गई हूँ।
अब मुझे इस थकान को मिटाना है
आवाज से इस बेबसी को मिटाना है
कि मैं जिन बन्धनों में बंध गई हूँ
तोड़ देना है उन्हें
कि मुझे अब चीखना है जोरों से
कि मेरा खुदा सुन सके
और मेरा मसीहा मुझसे मिल सके
की अब तो मुझे क्षितिज के पार ही जाना है
-एस. नेहा
दस साल पुरानी रचना
वाह बहुत खूब
ReplyDeleteइस क्षितिज के पार तो हम सब भी जाना चाहते हैं।जब इसकी कल्पना इतनी अच्छी हैं
वाह बेहतरीन रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
ReplyDeleteवाह !!! बहुत शानदार रचना
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १४ अगस्त २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह
ReplyDeleteगजब।
ReplyDeleteउस पार जाना भी मुश्किल है
बेचैनियों का सफर है।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १७ सितंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
रचना अच्छी लगी। वर्तनी में सुधार अपेक्षित हैं।
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