तुम तक पहुँचने का रास्ता
बहुत अकेला था
लम्बा भी
कड़ी धूप थी
और तुम्हारे इश्क़
की गर्मी
झुलसाती रही मेरी रूह को
मुसलसल
एक लाल रेशमी छाते से
सालों की बर्फ को
अचानक पिघलने से
बचाते हुए
गीले आँखों के पोरों को
छुपाते हुए
तुम तक पहुँची तो ....
तो तुम जा चुके थे
अपने जिस्म को
कर चुके थे
किसी और के नाम
रूह को
नीलाम कहीं कर चुके थे
तुम्हारे गिलास में
बची हुई दो घूँट व्हिस्की
एक आधी जली सिगरेट
थोड़ी ठंडी चाय चखी
और लौट आयी
अब पाँव के छालों के
मरहम का नाम याद नहीं
पीठ पर सूर्यदाह का धब्बा है
और रूह
रिस रही है !
-पूजा प्रियंवदा
पार्श्व स्वर
पार्श्व स्वर
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30-09-2018) को "तीस सितम्बर" (चर्चा अंक-3110) (चर्चा अंक-3103) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'