कभी मोम बनकर पिघल गया कभी गिरते गिरते संभल गया
वो बन के लम्हा गुरेज़ का मेरे पास से निकल गया
उसे रोकता भी तो किस तरह वो सख्श इतना अजीब था !
कभी तड़प उठा मेरी आह से कभी अश्क से न पिघल सका
सरे-राह मे मिला वो अगर कभी तो नज़र चुरा के गुज़र गया
वो उतर गया मेरी आँख से मेरे दिल से क्यूँ न उतर सका
वो चला गया जहां छोड़ के मैं वहां से फिर ना पलट सका
वो संभल गया था 'फराज़' मगर मैं बिखर के ना सिमट सका
वो बन के लम्हा गुरेज़ का मेरे पास से निकल गया
उसे रोकता भी तो किस तरह वो सख्श इतना अजीब था !
कभी तड़प उठा मेरी आह से कभी अश्क से न पिघल सका
सरे-राह मे मिला वो अगर कभी तो नज़र चुरा के गुज़र गया
वो उतर गया मेरी आँख से मेरे दिल से क्यूँ न उतर सका
वो चला गया जहां छोड़ के मैं वहां से फिर ना पलट सका
वो संभल गया था 'फराज़' मगर मैं बिखर के ना सिमट सका
-अहमद फ़राज़
अहमद फ़राज़
जन्मः 14 जनवरी, 1931. कोहत, पाकिस्तान
जन्मः 14 जनवरी, 1931. कोहत, पाकिस्तान
मृत्युः 25 अगस्त, 2008. इस्लामाबाद, पाकिस्तान
ये रचना सौजन्यः रसरंग, दैनिक भास्कर से
wah ! bahut sundar...
ReplyDeleteबहुत सुंदर....!!
ReplyDeleteDainik Bhaskar main padi bahut badiya.
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeletekya bat hai..........kya sheriyat hai waaaaaaaaaaaah
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