Saturday, August 3, 2013

आदमी, यूँ सोचता कुछ और है..............दानिश भारती



चार:गर का फैसला कुछ और है
दर्द की मेरे दवा , कुछ और है

आदमी, यूँ सोचता कुछ और है
वक़्त की लेकिन रज़ा कुछ और है

थी कभी शर्मो-हया सबको अज़ीज़
अब ज़माने की हवा, कुछ और है

साँस लेना ही फ़क़त, जीना नहीं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कुछ और है


होती होंगीं, पुर-सुकूँ, आसानियाँ
इम्तेहानों का नशा, कुछ और है

है बहुत मुश्किल भुला देना उसे
लेकिन उसका सोचना कुछ और है

है तक़ाज़ा, सच को सच कह दूँ, मगर
मशविरा हालात का कुछ और है

लफ़्ज़ तू, हर लफ़्ज़ का मानी भी तू
क्या सुख़न इसके सिवा कुछ और है?

जो बशर मालिक की लौ से जुड़ गया
"दानिश" उसका मर्तबा कुछ और है

--दानिश भारती





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चार:गर(चारागर)=ईलाज करने वाला 
रज़ा=मर्ज़ी          
पुर-सुकूँ=चैन देने वाली
मशविरा=राए/ज़रूरत
सुख़न=काव्य       
मर्तबा=रुतबा       

6 comments:

  1. मेरी इस अदना-सी ग़ज़ल के अश`आर,
    आपकी पारखी नज़रों से होते हुए
    आपके इस तिलिस्मी ब्लॉग पर मक़ाम हासिल कर पाए हैं
    इसके लिए मैं ह्रदय से आभारी हूँ ...
    "दानिश"

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  2. आपकी यह रचना आज शनिवार (03-08-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

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  3. भावो का सुन्दर समायोजन......

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