Sunday, August 4, 2013

धूप का साथ गया..........वज़ीर आगा



धूप का साथ गया, साथ निभाने वाला
अब कहां आएगा वो, लौट के आने वाला

रेत पर छोड़ गया, नक्श हजारों अपने
किसा पागल की तरह, नक़्श मिटाने वाला

सब्ज शाखें कभी, ऐसे तो नहीं चीखती हैं
कौन आया है, परिंदो को डराने वाला

आरिज-ए-शाम का सुख़ी ने, फ़ाश उसे
पर्दा-ए-अब्र में था, आग लगाने वाला

सफर-ए-सब्र का तक़ाजा है, मेरे साथ रहो
दश्त पुर-हौल है, तूफ़ान है आने वाला

मुझको दर-पर्दा सुनाता रहा, किस्सा अपना
अगले वक़्तों का, हिकायत सुनाने वाला

शबनमी घास, घने फूल, लरजती किरणे
कौन आया है, ख़ज़ानों को लुटाने वाला

अब तो आराम करें, सोचती आंखे मेरी
रात का आखिरी तारा है, जानेवाला

-वज़ीर आगा
जन्मः18 मई, 1922, सरगोधा, पाकिस्तान
मृत्युः जन्मः07 सितम्बर, 2010, लाहोर पाकिस्तान
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शब्दार्थ
सब्जः हरी
आरिज-ए-शामः शाम के गाल
पर्दा-ए-अब्रः बादल के परदे


आज दैनिक भास्कर के रसरंग अंक में छपी रचना

5 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [05.08.2013]
    गुज़ारिश दोस्तों की : चर्चामंच 1328 पर
    कृपया पधार कर अनुग्रहित करें
    सादर
    सरिता भाटिया

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  2. वाह..............लाजवाब है..

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  3. भावपूर्ण सुन्दर रचना
    साभार!

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  4. भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....

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  5. बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती,आभार।

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