जो तेरे साथ-साथ चलती है
वो हवा, रुख़ बदल भी सकती है
क्या ख़बर, ये पहेली हस्ती की
कब उलझती है, कब सुलझती है
वक़्त, औ` उसकी तेज़-रफ़्तारी
रेत मुट्ठी से ज्यों फिसलती है
मुस्कुराता है घर का हर कोना
धूप आँगन में जब उतरती है
ज़िन्दगी में है बस यही ख़ूबी
ज़िन्दगी-भर ही साथ चलती है
ज़िक्र कोई, कहीं चले , लेकिन
बात तुम पर ही आ के रूकती है
ग़म, उदासी, घुटन, परेशानी
मेरी इन सबसे खूब जमती है
अश्क लफ़्ज़ों में जब भी ढलते हैं
ज़िन्दगी की ग़ज़ल सँवरती है
नाख़ुदा, ख़ुद हो जब ख़ुदा 'दानिश'
टूटी कश्ती भी पार लगती है
-दानिश भारती
बहुत सुंदर प्रस्तुति |
ReplyDeletebahut hi sundar rachna............
ReplyDeleteनाख़ुदा, ख़ुद हो जब ख़ुदा 'दानिश'
ReplyDeleteटूटी कश्ती भी पार लगती है
बहुत सुंदर प्रस्तुति |