समर्थ के आश्रय में
ढूंढता हूं
शब्दों में खोई अपनी कविता को
मूल अर्थ के लिए
संजोये थे शब्द-शब्द मैंने
उन्हीं शब्दों के आड़े-तिरछे स्वरूप में
खोई है कविता मेरी
मैंने सोचा था
भावना के प्रवाह से
सींचूंगा खेत तन के
बुझाऊंगा प्यास मन की
मगर
भावना के प्रवाह में
डूब के बह गई है कविता मेरी
कविता किंतु, मरती नहीं
अर्थ तक, तरती नहीं
समर्थ के आश्रय में
बहती रही, चलती रही
बुनती रही, बनती रही
गढ़ती रही, ढलती रही,
बीज-सम गलती रही
फिर शब्द गौण हो गए
और अर्थ ही बाकी रहा
सम अर्थ में
घुलकर विलीन हो गई
कविता मेरी।
- अमिताभ पांडेय 'शिवार्थ'
बहुत खूब सुन्दर लाजबाब अभिव्यक्ति।।।।।।
ReplyDeleteमेरी नई रचना
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
पृथिवी (कौन सुनेगा मेरा दर्द ) ?
ये कैसी मोहब्बत है
समर्थ के आश्रय में
ReplyDeleteबहती रही, चलती रही
बुनती रही, बनती रही
गढ़ती रही, ढलती रही,
बीज-सम गलती रही
-------------------------
बहुत बहुत उम्दा पोस्ट ..
फिर शब्द भी गौण हो गए
ReplyDeleteबस अर्थ ही बाकी रहा .
वाह!!बहुत खूब
लाजबाब
ReplyDelete