Sunday, March 3, 2013

सुबह देखा तो....................संतोष सुपेकर


रात आधी हो चुकी थी
नींद की पहली किश्त
पूरी हो चुकी थी मेरी
नींद खुली भी थी तो
कमरा एकाएक ठण्डा हो जाने से।
जो एक दस्तक थी
रात में, अक्टूबर माह की।
इच्छा हो रही थी
कि उठकर बंद कर दूँ
चलता पंखा
और ओढ़ लूँ चादर
जो पड़ी है पास टेबिल पर
लेकिन थकान और कमजोरी
को चलते
असमर्थ पा रहा था खुद को मैं
उठने में भी और
किसी को आवाज देने में भी
और फिर उठ भी न का
मैं सारी रात
लेकिन सुबह देखा तो
बिजली होते हुए भी
पंखा था बंद
बदन पर वही चादर पड़ी थी
पास के टेबिल वाली
मच्छर भगाने का
साधन  भी था ऑन
और ये सब बने हुए थे गवाह
वात्सल्य के

स्पष्ट था कि
यहां क्षणिक आगमन क
रात कमरे में आई थीं बुजुर्ग माँ


- संतोष सुपेकर

7 comments:

  1. सुंदर भावपूर्ण कविता. बधाई संतोष जी.

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  2. बढ़िया है आदरेया |
    आभार-

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  3. This comment has been removed by the author.

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  4. सुन्दर और भावपूर्ण रचना |


    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  5. सुंदर रचना
    बधाई

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  6. बहुत खूब सुन्दर लाजबाब अभिव्यक्ति।।।।।।

    मेरी नई रचना
    आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
    पृथिवी (कौन सुनेगा मेरा दर्द ) ?

    ये कैसी मोहब्बत है

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