नींद की पहली किश्त
पूरी हो चुकी थी मेरी
नींद खुली भी थी तो
कमरा एकाएक ठण्डा हो जाने से।
जो एक दस्तक थी
रात में, अक्टूबर माह की।
इच्छा हो रही थी
कि उठकर बंद कर दूँ
चलता पंखा
और ओढ़ लूँ चादर
जो पड़ी है पास टेबिल पर
लेकिन थकान और कमजोरी
को चलते
असमर्थ पा रहा था खुद को मैं
उठने में भी और
किसी को आवाज देने में भी
और फिर उठ भी न सका
मैं सारी रात
लेकिन सुबह देखा तो
बिजली होते हुए भी
पंखा था बंद
बदन पर वही चादर पड़ी थी
पास के टेबिल वाली
मच्छर भगाने का
साधन भी था ऑन
और ये सब बने हुए थे गवाह
वात्सल्य के
स्पष्ट था कि
यहां क्षणिक आगमन का
रात कमरे में आई थीं बुजुर्ग माँ
- संतोष सुपेकर
सुंदर भावपूर्ण कविता. बधाई संतोष जी.
ReplyDeleteबढ़िया है आदरेया |
ReplyDeleteआभार-
bahut khoob, anubhuti parak
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ReplyDeleteसुन्दर और भावपूर्ण रचना |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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सुंदर रचना
ReplyDeleteबधाई
बहुत खूब सुन्दर लाजबाब अभिव्यक्ति।।।।।।
ReplyDeleteमेरी नई रचना
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
पृथिवी (कौन सुनेगा मेरा दर्द ) ?
ये कैसी मोहब्बत है