उम्रेदराज़ काट रहा हूँ तेरे बगैर
गुलों से खार छांट रहा हूँ तेरे बगैर
हंसने को जी करे है न, रोने को जी करे
मुर्दा शबाब काट रहा हूँ तेरे बगैर
क्या जुर्म किया था जो, हिज़्र की सजा मिली
नाकरदा गुनाह को छांट रहा हूँ तेरे बगैर
ज़ख़्मों को सी लिया है, होंठों को सी लिया,
फिर भी खुद को डांट रहा हूँ तेरे बगैर
चंद लम्हें फुरसत के अब नसीब हुए हैं
गैरों के बीच बांट रहा हूँ तेरे बगैर
-निकेत मलिक
.....परिवार, पत्रिका
गुलों से खार छांट रहा हूँ तेरे बगैर
हंसने को जी करे है न, रोने को जी करे
मुर्दा शबाब काट रहा हूँ तेरे बगैर
क्या जुर्म किया था जो, हिज़्र की सजा मिली
नाकरदा गुनाह को छांट रहा हूँ तेरे बगैर
ज़ख़्मों को सी लिया है, होंठों को सी लिया,
फिर भी खुद को डांट रहा हूँ तेरे बगैर
चंद लम्हें फुरसत के अब नसीब हुए हैं
गैरों के बीच बांट रहा हूँ तेरे बगैर
-निकेत मलिक
.....परिवार, पत्रिका
Lazwab
ReplyDeleteKat gyee sari yu hi tere bagair
Kt jaygi baki umr bhi tere bagair
बेहतरीन ग़ज़ल
ReplyDeleteचंद लम्हें नसीब हुए
हम उनके करीब हुए
तेरे बगैर यूँ ही जिंदा हूँ
आज अपने ही रकीब हए
bahut badhiya
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (27-09-2014) को "अहसास--शब्दों की लडी में" (चर्चा मंच 1749) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
शारदेय नवरात्रों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Baahut sunder prastuti haai aapki ..badhaayi !!
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
lazwab rachna...sundar
ReplyDeletebhawnaao se oot-prot sunder abhivyakti !!
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