Saturday, March 24, 2018

एक एहसास अनछुआ सा.....कुसुम कोठारी


झील के शांत पानी मे
शाम की उतरती धुंधली उदासी
कुछ और बेरंग
श्यामल शाम का सुनहरी टुकडा

कहीं क्षितिज के क्षोर पर पहुंच   
काली कम्बली मे सिमटता
निशा के उद्धाम अंधकार से  
एकाकार हो
जैसे पर्दाफाश  करता
अमावस्या के रंग हीन
बेरौनक आसमान का
निहारिकाऐं जैसे अवकाश पर हो

चांद के साथ कही सुदूर प्रांत मे 
ओझल कहीं किसी गुफा मे विश्राम करती
छुटपुट तारे बेमन से टिमटिमाते
धरती को निहारते मौन
कुछ कहना चाहते,
शायद धरा से मिलन का
कोई सपना हो
जुगनु दंभ मे इतराते
चांदनी की अनुपस्थिति मे
स्वयं को चांद समझ डोलते

चकोर व्याकुल कहीं
सरसराते अंधेरे पात मे दुबका
खाली सूनी आँखों मे
एक एहसास अनछुआ सा
अदृश्य से गगन को
आशा से निहारता
शशि की अभिलाषा मे
विरह मे जलता
कितनी सदियों
यूं मयंक के मय मे
उलझा रहेगा
इसी एहसास मे
जीता मरता रहेगा
उतरती रहेगी कब तक
शांत झील मे शाम की उदासियां।

-कुसुम कोठारी

4 comments:

  1. बेहद खूबसूरत परिकल्पना... जीवन मानो आपकी रचना में सिमट आया हो..!

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  2. वाह !!! बहुत खूब ..सुंदर .. शानदार रचना
    मन को छू गई ....अप्रतीम भाव

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  3. बहुत शानदार रचना.....
    चाँद रहित आसमान.... रंगहीन अमावस्या.....
    जुगनू का दंभ.....शान्त झील में शाम की उदासियाँ....
    वाह!!!
    सुन्दर शब्द विन्यास से सजी लाजवाब अभिव्यक्ति...

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  4. लाजवाब शब्द संयोजन के साथ प्रकृति का अनुपम शब्द चित्र | प्रिय कुसुम जी सस्नेह बधाई |

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