Monday, March 12, 2018

चीखो, बस चीखो..... स्मिता सिन्हा

चीखो 
कि हर कोई चीख रहा है 
चीखो 
कि मौन मर रहा है 
चीखो 
कि अब कोई और विकल्प नहीं 
चीखो 
कि अब चीख ही मुखरित है यहाँ 
चीखो 
कि सब बहरे हैं 
चीखो 
कि चीखना ही सही है 
चीखो 
बस चीखो 
लेकिन कुछ ऐसे 
कि तुम्हारी चीख ही 
हो अंतिम 
इतने शोर में

-स्मिता सिन्हा 

प्राप्ति स्त्रोतः

8 comments:

  1. संयोगव स्मिता जी, मेरी पत्नी की बहन हैं और काफी प्रतिभाशाली भी। इन्होने मास मीडिया की डिग्री हासिल की है और कविता लेखन में उत्कृष्ट है। मेरी शुभकामनाएँ और आशीष उनके साथ है।
    आदरणीय यशोदा दीदी का आभार कि इस मंच पर उनकी कविता पढने का यह मौका मुझे अनायास ही मिल गया।
    सधन्यवाद।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-03-2017) को "सफ़र आसान नहीं" (चर्चा अंक-2908) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. कितना... आक्रोश इन चीखों के आह्वान में... खूबसूरत यथार्थ वादी सोच वाली कविता... बधाई आपको ...!!

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  4. कितना आक्रोश इन चीखों में... वर्तमान व्यवस्था पर चोट करती रचना. बधाई स्वीकार करें।

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  5. बहुत सटीक रचना

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  6. बहरी व्यवस्था को चीख भी सुनाई नहीं देती है, लेकिन अपनों की खुसर-फुसर भली लगती है
    सटीक प्रस्तुति

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  7. बहुत सुन्दर

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