हमने उनको पास बुलाया लेकिन वो ही आ न सके
ख़त में सब कुछ लिख न सके, दिल भी अपना दिखला न सके
दिन, हफ़्ते, माह बीत गए अब तो , कितने ही साल हुए
ना आना था आ न सके, संदेसा तक भिजवा न सके
बचपन बीता और जवानी भी अब तो लाचार हुई
पागल दिल में आस अभी है, इसको हम समझा न सके
लगता है चुपके से कभी आ जाएँ वो यूँ ही न कहीं
मिलने के वो ख़्वाब मेरी आँखों से अब तक जा न सके
कुछ तो कर लो होश ख़लिश, दुनिया की सुन लो बात ज़रा
दुनिया का दस्तूर यही जाने वाले फिर आ न सके.
बहर --- २२-२२ २११२ २२-२२ २२११ २
-महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
बहुत अच्ची...
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