जब कहा मैंने कुछ हिसाब तो दे।
क्यों फ़रिश्तों की झुक गई आँखें।।
इतने ख़ामोश क्यों हैं शहर के लोग।
कुछ तो पूछें, कोई तो बात करें॥
अजनबी शहर और रात का वक़्त।
अब सदा दें तो हम किसको दें॥
कौन आता है इतनी रात गए।
अब तो दरवाज़ा उठ के बंद करें॥
बहस चारागरों से क्या, लेकिन।
सिर्फ़ इतना है मुझको जाने दे॥
एक लम्हा फ़सील पर 'आबिद'।
कब तलक़ शहर का तवाफ़ करे॥
-आबिद आलमी
behatreen post
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-07-2016) को "धरती पर हरियाली छाई" (चर्चा अंक-2405) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
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