तरसावन के
कौंधे बिजली
यादें उजली
अंगड़ाई ले
सांझें मचली
आते सपने
मन भावन के...
चलती पछुआ
बचते बिछिआ
सिमटे-सहमें
मन का कछुआ
हरियाए तन
सब घावन के
नदिया उमड़ी
सुधियां घुमड़ी
लागी काटन
हंसुली रखड़ी
छाये बदरा
तर-सावन के..
बरसे बदरा
रिसता कजरा
बांधूं कैसे
पहुंची गजरा
बैरी दिन हैं
दुख पावन के...
मीठे सपने
कब है अपने
चकुआ मन का
लगता जपने
कितने दिन हैं
पिऊ आवन के..
--विनोद रायसरा
बढ़िया ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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