जितना घिसती हूं
उतना निखरती हूं
परमेश्वर ने बनाया है मुझको
कुछ अलग ही मिट्टी से
जैसा सांचा मिलता है
उसी में ढल जाती हूं
कभी मोम बनकर
मैं पिघलती हूं
तो कभी दिए की जोत
बनकर जलती हूं
कर देती हूं रोशन
उन राहों को
जो जिद में रहती हैं
खुद को अंधकार में रखने की
पत्थर बन जाती हूं कभी
कि बना दूं पारस
मैं किसी अपने को
रहती हूं खुद ठोकरों में पर
बना जाती हूं मंदिर कभी
सुनसान जंगलों में भी
हूं मैं एक फूल सी
जिस बिन
ईश्वर की पूजा अधूरी
हर घर की बगिया अधूरी..!!
-तरसेम कौर
सुन्दर ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 22/07/2016 को
पांच लिंकों का आनंद
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