Monday, January 25, 2016

मिले ग़म से अपने फ़ुर्सत तो सुनाऊं वो फ़साना....मुईन अहसन जज़्बी

मिले ग़म से अपने फ़ुर्सत तो सुनाऊँ वो फ़साना|
कि टपक पड़े नज़र से मय-ए-इश्रत-ए-शबाना।


यही ज़िन्दगी मुसीबत यही ज़िन्दगी मुसर्रत
यही ज़िन्दगी हक़ीक़त यही ज़िन्दगी फ़साना।


कभी दर्द की तमन्ना कभी कोशिश-ए-मदावा
कभी बिजलियों की ख़्वाहिश कभी फ़िक़्र-ए-आशियाना। 


मेरे कहकहों के ज़द पर कभी गर्दिशें जहाँ की, 
मेरे आँसूओं की रौ में कभी तल्ख़ी-ए-ज़माना


कभी मैं हूँ तुझसे नाला कभी मुझसे तू परेशाँ,
मेरी रिफ़अतों ले लर्जा कभी मेहर -ओ-माह-ओ-अंजुम।

मिरी पस्तियों से खाइफ़ कभी औज़-ए-ख़ुसरवाना 
कभी मैं तेरा हदफ़ हूँ कभी तू मेरा निशाना।

जिसे पा सका न ज़ाहिद जिसे छू सका न सूफ़ी, 
वही तीर छेड़ता है मेरा सोज़-ए-शायराना। 

-मुईन अहसन जज़्बी
जन्म : अगस्त 1912, आजमगढ़ (उ.प्र.) 
निधन : फरवरी 2005 अलीगढ़ (उ. प्र.) 
शब्दार्थ :
जश्न की रात की शराब, खुशी, इलाज की कोशिश, 
जमाने की कड़ुआहट, उँचाई, सिहरन, तारा, गहराई, डर, 
शाही ताकत का कद, उद्देश्य, श़ायर का जुनून

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