सिर्फ लफ़्फाज़ियाँ आज के दौर में।
और चालाकियाँ आज के दौर में।
अधखुला जिस्म लेकर के घूमें-फिरें,
राह में लड़कियाँ आज के दौर में।
देख लो पल रही पाउडर मिल्क पर,
दुधमुही बच्चियाँ आज के दौर में।
रुखसती के समय में भी बूढ़े बहुत,
कर रहे शादियाँ आज के दौर में।
डॉक्टर की बदौलत ही मरने लगीं,
कोख में बेटियाँ आज के दौर में।
अब न शोखी न शोखी का मतलब कोई ,
खो गईं शोखियाँ आज के दौर में।
याद महबूब को भी न आती "कुँवर",
हैं कहाँ हिचकियाँ आज के दौर में।
-कुँवर कुसुमेश
आपको मेरी ग़ज़ल अच्छी लगी ..... मेरे लिए ख़ुशी की और मेरा हौसला बढ़ाने वाली बात है .....शुक्रिया,...... यशोदा ....... बहन
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-01-2016) को "विषाद की छाया में" (चर्चा अंक-2230) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर ग़ज़ल
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