Saturday, February 23, 2013

किसी को भूल सकता है कैसे?.............विजय निकोर



अस्तित्व की शाखाओं पर बैठे
अनगिन घाव
जो वास्तव में भरे नहीं
समय को बहकाते रहे
पपड़ी के पीछे थे हरे
आए-गए रिसते रहे

कोई बात, कोई गीत, कोई मीत
या केवल नाम किसी का
उन्हें छील देता है, या
यूं ही मनाने चला आता है-

मैं तो कभी रूठा नहीं था
जीने से, बस
आस जीने की टूटी थी
चेहरे पर ठहरी उदासी गहरी
हर क्षण मातम हो
गुजरे पल का जैसे
सांसें भी आईं रुकी-रुकी
छांटती भीतरी कमरों में बातें
जो रीत गईं, पर बीतती नहीं
जाती सांसों में दबी-दबी
रुंध गई मुझको रंध्र-रंध्र में ऐसे
सोए घाव, पपड़ी के पीछे जागे
कुछ रो दिए, कभी रिस दिए
वही जो सं‍वलित था भीतर
और था समझने में कठिन
जाती सांसों को शनै:-शनै:
था घोट रहा

ऐसी अपरिहार्य ऐंठन में
अपरिमित घाव समय के
कभी भरते भी कैसे?
लाख चाह कर भी कोई
स्वयं को समेटकर, बहकाकर
किसी को भूल सकता है कैसे?

- विजय निकोर

8 comments:

  1. वाह .........बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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  2. कल २४/०२/२०१३ को आपकी यह पोस्ट Bulletin of Blog पर लिंक की गयी हैं | आपके सुझावों का स्वागत है | धन्यवाद!

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  3. विजय निकोर जी की कलम में जादू है।
    तुषारजी आपके इस ब्लाग का तो मुझको पता ही नहीं चला।

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  4. bahut sunder..alag alag pratibhaon ko jan ne ka mauka mila ...

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  5. सुन्दर कविता प्रस्तुत करने के लिए आभार।

    नया लेख :- पुण्यतिथि : पं . अमृतलाल नागर

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