Sunday, July 9, 2017

हया.....पावनी दीक्षित "जानिब"

हया आंखो में अब बहुत मुश्किल से मिलती है 
बेशर्मी आजकल अब यहाँ नाजों से पलती है ।

बयां करदूं अगर सचाई तो कड़वी बहुत होगी
शर्म का छोड़ कर गहना बिना चूनर के चलती है।

नुमाइश जिस्म की करना कहां की ये शराफत हैं 
हर शय दायरे में हो तभी तक सुन्दर लगती है ।

हार बैठा दुशासन तन से नौ गज खींच कर साडी 
मगर आज कल कपडों मे कितनी देर लगती है ।

आज़ादी का नहीँ मतलब शर्म अपनी गवां बैठें 
कटारी तेज हो कितनी म्यान मे अच्छी लगती हैं ।

मुझे कमज़ोर समझे तो समझने दीजिए जानिब 
लाज से हों झुकी पलकें तो नारी नारी लगती है।
- पावनी दीक्षित  "जानिब"

9 comments:

  1. शानदार ,सटीक ,सामयिक हस्तक्षेप ! सृजन में बहती धारा से उलट कोई आईना लेकर खड़ा हो जाय तो उसको शत -शत नमन। उत्कृष्ट ग़ज़ल। बधाई।

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  2. शानदार ,सटीक ,सामयिक हस्तक्षेप ! सृजन में बहती धारा से उलट कोई आईना लेकर खड़ा हो जाय तो उसको शत -शत नमन। उत्कृष्ट ग़ज़ल। बधाई।

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  3. यह भी एक नज़रिया

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (10-07-2017) को "एक देश एक टैक्स" (चर्चा अंक-2662) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. आज़ादी का नहीँ मतलब शर्म अपनी गवां बैठें
    कटारी तेज हो कितनी म्यान मे अच्छी लगती हैं........बहुत खूब

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  6. एकदम सटीक......
    नुमाइश जिस्म की करना कहां की ये शराफत हैं
    हर शय दायरे में हो तभी तक सुन्दर लगती है ।
    बहुत ही सुन्दर.....
    लाजवाब

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  7. हया आंखो में अब बहुत मुश्किल से मिलती है
    बेशर्मी आजकल अब यहाँ नाजों से पलती है ।
    .. सटीक...

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