वक़्त बिताया अब तक तो हमने रंगीं गुलज़ारों में
आज कहो तो जी लेंगे हम इन अंधे गलियारों में
कोई ख़ता तो होगी जो तुम नाराज़ी में बैठे हो
उफ़ न कभी लब से निकलेगी, चिनवा दें दीवारों में
जो न कभी तुमने चाहा वो दिल में ना लाए हरगिज़
लोग हमारी गिनती करते हैं दिल के लाचारों में
जान लिया नामुमकिन है दिल को पाना अहसासों से
पास न दौलत तो मत जाना उल्फ़त के बाज़ारों में
आज तलक मुँह ना मोड़ा है ख़लिश वफ़ा से तो हमने
भूल न जाना, गिन लेना हमको अपने दिलदारों में.
बहर --- २११२ २२२२ २२२२ २२२२
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
Bahut hi khubsurat
ReplyDeleteसुंदर रचना...रंगोत्सव की शुभकामनयें...
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