रोने की हर बात पे कहकहा लगाते हो
ज़ख़्मों पर जलता, क्यूँ फाहा लगाते हो
गिर न जाए आकाश, से लौट के पत्थर
अपने मक़सद का, निशाना लगाते हो
हाथों हाथ बेचा करो, ईमान-धरम तुम
सड़कों पे नुमाइश, तमाशा लगाते हो
फूलो से रंज तुम्हें, ख़ुशबू से परहेज़
बोलो किन यादों फिर, बग़ीचा लगाते हो
छन के आती रौशनी, बस उन झरोखों से
संयम सुशील मन, से शीशा लगाते हो
- सुशील यादव
sushil.yadav151@gmail.com
जय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteआपने लिखा...
कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये दिनांक 27/03/2016 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
आप भी आयेगा....
धन्यवाद...
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार!
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
सार्थक रचना
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