Friday, August 15, 2014

यही तो होता आया है....यशोदा





 

आज दूसरा दिन है
आजादी का
आज से सड़सठ साल पहले
भी यही सोचा था
हमने कि
अब हम आजाद हैं

पर कहां
मिली है आजादी हमें
हम नहीं दे सकते
सजा उनको
जिसने हमारे साथ
ज्यादतियां की थी

वे अधीन हो जाते हैं
न्यायालय के
जहां उन्हें भरपूर
समय मिल जाता है
अपने बचाव का
सालों लग जाते हैं
तहकीकात में

और तो और
उसके साथ
ज्यादतियां होती ही रहती है
राह चलते,
सामाजिक तानों,
अपनों और परायों की
तीखी नज़रें
और अपनी ओर 

उठती उँगली से लगातार....
की जाती है
ज्यादतियां उस पर

एक बार ज्यादती हुई तो हो गयी
पर............. ये रोज की
ज्यादतियां असहनीय हो जाती है


ऐसे में वो
क्या भी करे?
या तो लटक जाए
जल जाए
या फिर
डूब जाए..
अंततः होता यही आया है

मन की उपज
-यशोदा 

5 comments:

  1. वास्तविक और सुन्दर अभिव्यक्ति ..............आभार!

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  2. गहरी संवेदनाओं को व्यक्त करती रचना
    बहुत बढ़िया

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  3. सुंदर सार्थक प्रस्तुति।...वाह...

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  4. शानदार सार्थक प्रस्तुति...

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