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अच्छे अच्छों को बुरी सोहबत बिगाड़ देती है
एक दीवार महज घर की सूरत बिगाड़ देती है
मालूम न हो आप को फरज़न्द हैं बड़े घर के
मज़लूमों की भूख जब गुरबत बिगाड़ देती है
जेबें खाली हों, फिर शौक दिल में क्या रखना
लोगों को गैर मुनासिब जरुरत बिगाड़ देती है
अपनी ही मिल्कियत से मुत्तफ़िक अगर नहीं
बाज बेवक्त आदमी की नीयत बिगाड़ देती है
जज़्बा ए उल्फत से है बची रौनकें जहान की
नफरत की चिनगारी तो जन्नत बिगाड़ देती है
खुदगर्ज ख़्वाहिशों की चाहत तो नहीं होती है
इल्जाम किसलिए कि उल्फत बिगाड़ देती है
-विनोद प्रसाद
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह!बहुत खूब!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना
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