Wednesday, May 8, 2019

मेरी माँ ....रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

ढिबरी के नीम उजाले में
पढ़ने मुझे बिठाती माँ।

उसकी चक्की चलती रहती
गाय दूहना, दही बिलोना
सब कुछ करती जाती माँ।

सही वक़्त पर बना नाश्ता
जी भर मुझे खिलाती माँ।
घड़ी नहीं थी कहीं गाँव में
समय का पाठ पढ़ाती माँ।

छप्पर के घर में रहकर भी
तनकर चलती–फिरती माँ।
लाग–लपेट से नहीं वास्ता
खरी-खरी कह जाती माँ।

बड़े अमीर बाप की बेटी
अभाव से टकराती माँ।
धन–बात का उधार न सीखा
जो कहना कह जाती माँ

अस्सी बरस की इस उम्र ने
कमर झुका दी है माना।
खाली बैठना रास नहीं
पल भर कब टिक पाती माँ।

गाँव छोड़ना नहीं सुहाता
शहर में न रह पाती माँ।
वहाँ न गाएँ, सानी-पानी
मन कैसे बहलाती माँ।

कुछ तो बेटे बहुत दूर हैं
कभी-कभी मिल पाती माँ।
नाती-पोतों में बँटकर के
और बड़ी हो जाती माँ।

मैं आज भी इतना छोटा
है कठिन छूना परछाई।
जब–जब माँ माथा छूती है
जगती मुझमें तरुणाई।

माँ से बड़ा कोई न तीरथ
ऐसा मैंने जाना है।
माँ के चरणों में न्योछावर
करके ही कुछ पाना है।
-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

6 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 09.09.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3330 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

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  2. बहुत ही सुन्दर रचना 👌|पढ़ कर अपने माँ होने का गुरूर,
    स्वाभिमान सीने दो कद और उठ जाता है |
    सादर

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  3. माँ से बड़ा कोई न तीरथ ...भावमय करती अभिव्यक्ति

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  4. बेहद हृदयस्पर्शी रचना

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  5. मैं आज भी इतना छोटा
    है कठिन छूना परछाई।
    जब–जब माँ माथा छूती है
    जगती मुझमें तरुणाई।
    माँ के सामने बच्चे हमेशा छोटे ही रहते हैं
    भावविभोर करती बहुत ही सुन्दर लाजवाब रचना

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  6. मां को समर्पित बहुत संवेदनशील और भाव भरी रचना।
    अप्रतिम सुंदर।

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