Tuesday, April 16, 2019

ताज़ी नज़्म पकाते हैं....दिलीप

आओ दिन के फ़र्श पे दोनों रात बिछाते हैं...
चाँद अंगीठी जला के ताज़ी नज़्म पकाते हैं...

थोड़ा सा एहसास गूँथ लो, कल ही पिसवाया हैं...
ग़म के फिर चकले बेलन पर उसे घुमाते हैं...

पिछली बार की जो ग़ज़लें बाँधी थी मैने ख़त में...
चलो उसे चखने से पहले कुछ गर्माते हैं...

खट्टी बादल की चटनी या तारों की शक्कर से...
तोड़ तोड़ कर एक निवाला चाव से खाते हैं...

वो जो ऊपर रात की रानी उड़ती रहती है...
चलो उसे भी प्याले मे भर ओस पिलाते हैं...

ज़रा ओस फिर हम पी लें और थोड़ी मदहोशी में...
चलो ओढ़ कर हवा सुहानी हम सो जाते हैं...

आओ दिन की फ़र्श पे दोनों रात बिछाते हैं...
चाँद अंगीठी जला के ताज़ी नज़्म पकाते हैं...


6 comments:

  1. वाह बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल

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  2. बहुत सुन्दर कविता पकाई है ! नीरज के गीत -
    'शोखियों में घोला जाए, फूलों का शबाब
    उसमें फिर मिलाई जाए थोड़ी सी शराब,
    होगा वो नशा जो तैयार,
    वो प्यार है.'
    की याद आ गयी.

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  3. वाहह्हह.. वाहि...दिलकश बेहतरीन.. बेहद खूबसूरत..👌

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-04-2019) को "बेचारा मत बनाओ" (चर्चा अंक-3308) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. थोड़ा सा एहसास गूँथ लो, कल ही पिसवाया हैं...
    ग़म के फिर चकले बेलन पर उसे घुमाते हैं...
    अप्रतिम .... !!!

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