ख़्वाबों मेरे ख़्वाबों कभी तो आराम करो
कितना और उड़ोगे कहीं तो अब शाम करो
थक कर बैठी हूँ मैं पीछे तुम्हारे भागते-भागते
आँख-मिचोली के इस खेल में तुम हाथ कभी न आते
इतनी ऊँची पींगे तुम्हारी कभी तो ढलान करो
ख़्वाबों मेरे ख़्वाबों कभी तो आराम करो
आँखों में तुम जब सजते हो रोशन हो जाता है जग मेरा
पर पल में ग़ायब होने की ज़िद में टूट ही जाता है मन मेरा
अपने सतरंगी मौसम से जीवन मेरा गुलफ़ाम करो
ख़्वाबों मेरे ख़्वाबों कभी तो आराम करो
कितना और उड़ोगे कहीं तो अब शाम करो
-विभा नरसिम्हन
बहुत सुंदर रचना आदरणिया विभा नरसिम्हन जी
ReplyDeleteसुंदर रचना 👌
ReplyDeletewaah kya line hain..
ReplyDeleteतनी ऊँची पींगे तुम्हारी कभी तो ढलान करो .
बहुत सुंदर बहाव मन के अतरंग एहसासों का।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (31-07-2018) को "सावन आया रे.... मस्ती लाया रे...." (चर्चा अंक-3049) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
रोचक रचना
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