
बारिशें थोड़ी जमो अभी
बादल थोड़े थमो अभी
मुस्कुराहटें थोड़ी तिरो अभी
हँसी थोड़ी झरो अभी
अनुभूतियाँ थोड़ी रुको अभी
उम्मीदें थोड़े ठिठको अभी
रंग थोड़े ठहरो अभी
उमंग थोड़ा ठौर अभी
प्रेम थोड़ा संग अभी!!
कि अब तक बहुत होश में थी
अब कुछ बेख्याल तो हो लूँ
जिन्दगी के सिरहाने बैठ
उसे थोड़ा जी तो लूँ!!
कहीं मन रीता न रह जाये!
~निधि सक्सेना
सुंदर भाव रचना ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (20-07-2018) को "दिशाहीन राजनीति" (चर्चा अंक-3038) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह रचना ...
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत .... लाजवाब रचना।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन आज़ादी के पहले क्रांतिवीर की जन्मतिथि और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteवाह अनुपम
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