Saturday, August 5, 2017

सौंदर्यबोध...सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


अपने इस गटापार ची बबुए के
पैरों में शहतीरें बांधकर
चौराहे पर खड़ा कर दो,
फिर, चुपचाप ढ़ोल बजाते जाओ,
शायद पेट भर जाए :
दुनिया विवशता नहीं
कुतूहल खरीदती है|


भूखी बिल्ली की तरह
अपनी गरदन में संकरी हाँडी फँसाकर
हाथ-पैर पटको,
दीवारों से टकराओ,
महज छटपटाते जाओ,
शायद दया मिल जाए:
दुनिया आँसू पसन्द करती है
मगर शोख चेहरों के|


अपनी हर मृत्यु को
हरी-भरी क्यारियों में
मरी हुई तितलियों-सा
पंख रंगकर छोड़ दो,
शायद संवेदना मिल जाए :
दुनिया हाथों-हाथ उठा सकती है
मगर इस आश्वासन पर
कि रुमाल के हल्के-से स्पर्श के बाद
हथेली पर एक भी धब्बा नहीं रह जाएगा|


आज की दुनिया में
विवशता,
भूख,
मृत्यु,
सब सजाने के बाद ही
पहचानी जा सकती है|
बिना आकर्षण के दुकानें टूट जाती हैं|
शायद कल उनकी समाधियां नहीं बनेंगी
जो मरने के पूर्व
कफ़न और फूलों का
प्रबन्ध नहीं कर लेंगें|
ओछी नहीं है दुनिया:
मैं फिर कहता हूँ,
महज उसका सौंदर्य-बोध
बढ़ गया है|




15 सितंबर 1927 -- 23 सितंबर 1983

5 comments:

  1. Yashoda dee , blog yah rachna lagane ke liye shukriya. Vastav me ab bhookh, mrityu, vedna jab tak chamakte raipar me parose nahi jate tsb tak kisee kee samvedana ke laayak nahee samjhe jaate.

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " भारतीय छात्र और पूर्ण-अंक “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. वाह!
    सुन्दर सटीक और सार्थक प्रस्तुति....

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