...कि जीवन ठहर न जाए
आओ कुछ करें
शहर से बाहर
उस मोडे के डेरे में
छुपकर बेरिया झड़काएँ
और बटोरे खट्टे-मीठे बेर।
चलो न आज
रेल की पटरी पर
"दस्सी" रखकर
गाड़ी का इंतजार करें
कितनी बड़ी हो जाती है दस्सी
गाड़ी कर नीचे आकर!
चलो ते झोली में भर लें
छोटे-बड़े कंकड़ और ठीकरियां
चुंगी के पास वाले जोहड़ में
ठीकरियों से बनाएं
छोटी-बड़ी थालियां।
थालियों में भर-भर सिंघाड़े निकालें।
छप-छप पैर चलाकर
जोहड़ में "अन्दर-बाहर" खेलें।
या कि गत्ते से काटें बड़े-बड़े सींग
काली स्याही में रंगकर
सींग लगाकर
उस मोटू को डराएं।
कैसे फुदकता है मोटू सींग देखकर।
कितना कुछ पड़ा है करने को।
अख़बारें से फोटू काट-काटकर
बड़े सारे गत्ते पर चिपकाना
धागे को स्याही में डुबोकर
कॉपी में "फस्स" से चलाना
और उकेरना
पंख,तितली या बिल्ली का मुंह!
चोर सिपाही, "पोषम पा भई पोषम पा" खेले
कितने दिन गुज़र गए।
चलो न कुछ करें
कहीं से भी सही, शुरु तो करें
...कि जीवन ठहर न जाए
चलो कुछ करें
-माया मृग
स्रोतः मधुरिमा
वाह ।
ReplyDeleteपोषम पा भई पोषम पा" ..बचपन के खेल सुहावने
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
चोर सिपाही, "पोषम पा भई पोषम पा" खेले
ReplyDeleteकितने दिन गुज़र गए।...........ab to humein bhi apna bachpan bahut door dikhta hai.............bahut hi achchhi kriti..........liked
कमाल का फ्लैश बैक सृजन कर रही है यह कविता कि उम्र के 54 पतझड़ पार करने के बाद भी लगता है फिर से उसी समय में पहुँच गये जिसके बारे में कहते हैं - कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनन्द!
ReplyDelete