लोग भी अपने सिमटेपन में बिखरे-बिखरे हैं
राजमार्ग भी,पगडण्डी से ज्यादा संकरे हैं।
हर उपसर्ग हाथ मलता है, प्रत्यय झूठे हैं
पता नहीं औषधियों के दर्द अनूठे हैं
आँखे मलते हुए सबेरे केवल अखरे हैं।
पेड़ धुएं का लहराता है अंधियारों जैसा
है भविष्य भी बीते दिनों के गलियारों जैसा
आँखे निचुड़ रहे से उजियारे के क़तरे हैं।
उन्हें उठाते जो जग से उठ जाया करते हैं
देख मजारों को हम शीश झुकाया करते हैं
सही बात कहने के सुख के अपने कतरे हैं।
-यश मालवीय
स्रोतः मधुरिमा
Sometimes truth can break or make a relationship, hence people shy away from speaking truth.
ReplyDeleteसुन्दर भाव...बहुत खूब...
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteभाव सुंदर।
ReplyDeleteपेड़ धुएं का लहराता है अंधियारों जैसा
ReplyDeleteहै भविष्य भी बीते दिनों के गलियारों जैसा
आँखे निचुड़ रहे से उजियारे के क़तरे हैं।
बहुत ही सुन्दर रचना