थक गया हर शब्द
अपनी यात्रा में,
आँकड़ों को जोड़ता दिन
दफ़्तरों तक रह गया।
मन किसी अंधे कुएँ में
खोजने को जल
कागज़़ों में फिर गया दब,
कलम का सूरज
जला दिन भर
मगर है डूबने को अब।
एक क्षण कोई अबोली साँझ के
कान में यह बात आकर कह गया,
एक पूरा दिन, दफ़्तरों तक रह गया।
सुख नहीं लौटा
अभी तक काम से,
त्रासदी की देख गतिविधियाँ
बहुत चिढ़ है आदमी को
आदमी के नाम से।
एक उजली आस्था का भ्रम
फिर किसी दीवार जैसा ढह गया,
एक लंबी देह वाला दिन
दफ़्तरों तक रह गया।
-तारादत्त निर्विरोध
बहुत खूब ।
ReplyDeleteएक क्षण कोई अबोली साँझ के
ReplyDeleteकान में यह बात आकर कह गया,
एक पूरा दिन, दफ़्तरों तक रह गया।
...बहुत सही...
दिन यूँ ही कब कैसे ढलता है पता ही नहीं चलता
एक उजली आस्था का भ्रम
ReplyDeleteफिर किसी दीवार जैसा ढह गया,
एक लंबी देह वाला दिन
दफ़्तरों तक रह गया।
सुंदर। पर अभी तो उजली आस्था जागी है।
कलम का सूरज जला दिन भर,बहुत चिढ है आदमी को,आदमी के नाम से
ReplyDeleteएक लंबी देह वाला दिन,दफ्तरों तक रह गया----बहुत सटीक भावों का शब्दों में संयोजन.
खूबसूरत कथ्य...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना.. कथ्य बहुत स्तरीय ..
ReplyDeleteबेहद उम्दा रचना और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@आप की जब थी जरुरत आपने धोखा दिया (नई ऑडियो रिकार्डिंग)