मुझपे वो मेहरबान है शायद
फिर मेरा इम्तेहान है शायद
उसकी ख़ामोशियाँ ये कहती हैं
उसके दिल में ज़बान है शायद
मुझसे मिलता नहीं है वो खुलकर
कुछ न कुछ दरमियान है शायद
उसके जज़्बों की क़ीमते तय हैं
उसका दिल भी दुकान है शायद
मेरे दिल में सुकून पायेगा
दर्द को इत्मिनान है शायद
फिर हथेली पे रच गई मेंहदी
फिर हथेली पे जान है शायद
बात सीधी है और गहरी है
‘क़म्बरी’ का बयान है शायद
- अंसार क़म्बरी
वाह !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-05-2014) को "संसार अनोखा लेखन का" (चर्चा मंच-1602) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर ग़ज़ल
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