Saturday, May 2, 2020

छाँह कहाँ रह गई ....विनोद प्रसाद

मनचाही जाने अब चाह कहाँ रह गई
पहुँचा दे घर तलक,राह कहाँ रह गई

दंतहीन वृक्ष खड़े रास्तों में कतारों से
सुलग रही धूप में छाँह कहाँ रह गई

कहाँ रह गई हमारे आंगन की रौनकें
ओट से निहारती निगाह कहाँ रह गई

हो गया गंदला मानसरोवर सा यह मन
प्रीत गंगा में भी वह,थाह कहाँ रह गई

रिश्ते भी ऐसे कर्ज ढोते हैं एहसानों के
अब तो संबंधों में निबाह कहाँ रह गई

बच्चे की किलकारी भी शोर हो गई है
घर के बुजुर्गों की सलाह कहाँ रह गई

अब हौसले भी नहीं हैं जीने के अपने
यह जिन्दगी होके तबाह कहाँ रह गई
-विनोद प्रसाद

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 02 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. विनोद प्रसाद जी की सुन्दर गजल प्रस्तुति हेतु धन्यवाद

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  4. बहुत उम्दा प्रस्तुति ।
    बेहतरीन।

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