Monday, April 17, 2017

बंधन .........शबनम शर्मा











हम कब, कैसे बंध 
जाते हैं 
रिश्तों की डोर में 
पता ही नहीं चलता, 
रिश्ते नहीं टूटते,
हम हो जाते ज़ार-ज़ार, 
टुकड़े-टुकड़े,
बस दिखता है हमें 
सिर्फ़ वो लम्हा, जब 
पहली बार बंधे थे हम 
उस डोर से, 
डोर, कब कच्ची हुई, 
कब धागे अलग-अलग हो गये, 
खिसक गई हमारे 
पाँव के नीचे की ज़मीन, 
चूर-चूर हो गया हमारा 
अस्तित्व और मिल गये 
हम मिट्टी में। 
-शबनम शर्मा


4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-04-2017) को

    "चलो कविता बनाएँ" (चर्चा अंक-2620)
    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. दिनांक 18/04/2017 को...
    आप की रचना का लिंक होगा...
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
    आप की प्रतीक्षा रहेगी...

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  3. मत तोड़ो, इसे रहने दो! प्रीत की कोमल डोर
    बंधे रहो चिरस्थाई जीवन से ,ख़ुशियाँ चारो ओर।
    सुन्दर रचना !आभार

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