Sunday, April 9, 2017

जोड़-तोड़.....श्रीमती आशा शैली

बहुत गरीब थी वह, न घर न रोजग़ार। कभी दिहाड़ी-मज़दूरी मिल जाती और कभी-कभी उसमें भी नागा हो जाता। किराये के एक कमरे में ही नहाना-खाना और सोना सभी कुछ। पति का यह हाल था कि कभी कमाया, कभी घर बैठ कर दारु पी ली और माँ-बेटी को पीट दिया। माँ को मजूरी मिल गई तो जै-हरि वर्ना जो घर में हुआ उसी से काम चला लिया। पति चार दिन आ जाता और फिर गायब हो जाता। कभी-कभी माँ-बच्चों को दूसरों का दरवाज़ा भी देखना पड़ता। मायका दस घरों की दूरी पर होने के कारण उन्हें भूखा सोना नहीं पड़ता था वर्ना ऐसा होने में भी कोई कसर नहीं थी। 



ऐसे में उसका छोटा बच्चा बीमार हो गया। दर्द से छटपटाते बच्चे को लेकर वह डाक्टर के पास गई तो डाक्टर ने आप्रेशन करने को कह दिया। कुल ख़र्चा लगभग दस हज़ार बताया गया। जिस औरत के पास पैरों के लिए चप्पल ख़रीदने के पैसे न हों उसके लिए दस हज़ार आकाश-सुमन ही तो था, परंतु माँ थी वह, बच्चे को तड़पता कैसे देख सकती थी?

पूरे गाँव में इस घर से उस घर मदद माँगते उसे जब पन्द्रह दिन हो गए तो गाँव के मुखिया ने उसे सरकारी अस्पताल ले जाने की सलाह दी जहाँ बिना पैसे के बच्चे का आपरेशन हो सकता था।

बच्चे की माँ सोच रही थी कि इतना बड़ा गाँव है, यदि कुछ लोग उसे पाँच-पाँच सौ रुपये भी दे दें तो वह बच्चे के इलाज के बाद भी कुछ तो बचा ही लेगी और कुछ दिन का पेट का गुज़ारा हो जाएगा, परन्तु ऐसा नहीं होना था सो नहीं हुआ। 

पूरे गाँव में गिड़गिड़ाने के बाद भी उसे कहीं से एक पैसे की भी सहायता नहीं मिली। पंचायत प्रधान ने तरस खाकर बच्चे को सरकारी अस्पताल में भर्ती करवा दिया। 

रैडक्रास की सहायता से बच्चे का इलाज तो हो गया परन्तु उसका जोड़-तोड़ धरा का धरा रह गया। उसकी दिनचर्या घूम फिर कर उसी पुराने ढर्रे पर आ गई।

-श्रीमती आशा शैली 

3 comments:

  1. मर्मस्पर्शी रचना ....

    ReplyDelete
  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस - राहुल सांकृत्यायन जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

    ReplyDelete