Friday, July 6, 2012

शहर से दूर वीरानी नहीं जाती !...............अन्सार 'क़म्बरी'

यहाँ कोई भी सच्ची बात अब मानी नहीं जाती,
मेरी आवाज़ इस बस्ती में पहचानी नहीं जाती !

बढ़ो आगे, करो रौशन, दिशाओं को, चिताओं से,
अकारथ दोस्तों कोई भी कुर्बानी नहीं जाती !

महल हैं, भीड़ है, मंदिर है, मस्जिद है, मशीनें हैं,
मगर फिरभी शहर से दूर वीरानी नहीं जाती !

कहीं बोतल, कहीं साग़र, कहीं मीना, कहीं साक़ी,
ये महफ़िल ऐसी बिखरी है कि पहचानी नहीं जाती !

ये झूठे आश्वासन आप अपने पास ही रखिये,
दहकती आग पर चादर कभी तानी नहीं जाती !

ज़बां बेची, कला बेची, यहाँ तक कल्पना बेची,
नियत फ़नकार की अब 'क़म्बरी' जानी नहीं जाती !

--अन्सार 'क़म्बरी'

12 comments:

  1. बेहतरीन गज़ल......
    शुक्रिया यशोदा जी.

    अनु

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुभ प्रभात दीदी
      धन्यवाद दीदी

      Delete
  2. बहुत सुन्दर गज़ल.. नियत यहाँ पहचानी नही जाती ...उम्दा...

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुभ प्रभात दीदी
      धन्यवाद दीदी

      Delete
  3. मगर फिर भी शहर से दूर वीरानी नहीं जाती !
    लाजवाब कंबरी साहब ..........
    नब्ज टटोलने की आपकी अदा काफी जुदा है... यकीनन
    ...

    ReplyDelete
  4. Bahut uttam shbd aur rachna, nirasha v rosh se bhari hui.Kisi ne such likha hy ki ghum ko pacha lene ki himmat se bhi such nhi badlta hai .

    ReplyDelete
  5. बहुत ही खूबसूरत शेरों से सजी है ये गज़ल ... लाजवाब ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया नासवा दी

      Delete
  6. "महल हैं, भीड़ है, मंदिर है, मस्जिद है, मशीनें हैं,
    मगर फिरभी शहर से दूर वीरानी नहीं जाती !"......बहुत खूब
    इस ग़ज़ल में तो दुष्यन्त कुमार जी का अक्स दिख रहा है ......मानो बेबसी चीख चीख कर कह रही हो -
    "जिस तरह चाहे बजा लो इस सभा में,
    हम नही हैं आदमी हम झुनझुने हैं"....
    नि:शब्द कर दिया आपने

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद अंजनी भाई

      Delete