यहाँ कोई भी सच्ची बात अब मानी नहीं जाती,
मेरी आवाज़ इस बस्ती में पहचानी नहीं जाती !
बढ़ो आगे, करो रौशन, दिशाओं को, चिताओं से,
अकारथ दोस्तों कोई भी कुर्बानी नहीं जाती !
अकारथ दोस्तों कोई भी कुर्बानी नहीं जाती !
महल हैं, भीड़ है, मंदिर है, मस्जिद है, मशीनें हैं,
मगर फिरभी शहर से दूर वीरानी नहीं जाती !
कहीं बोतल, कहीं साग़र, कहीं मीना, कहीं साक़ी,
ये महफ़िल ऐसी बिखरी है कि पहचानी नहीं जाती !
ये झूठे आश्वासन आप अपने पास ही रखिये,
दहकती आग पर चादर कभी तानी नहीं जाती !
ज़बां बेची, कला बेची, यहाँ तक कल्पना बेची,
नियत फ़नकार की अब 'क़म्बरी' जानी नहीं जाती !
--अन्सार 'क़म्बरी'
बेहतरीन गज़ल......
ReplyDeleteशुक्रिया यशोदा जी.
अनु
शुभ प्रभात दीदी
Deleteधन्यवाद दीदी
बहुत सुन्दर गज़ल.. नियत यहाँ पहचानी नही जाती ...उम्दा...
ReplyDeleteशुभ प्रभात दीदी
Deleteधन्यवाद दीदी
मगर फिर भी शहर से दूर वीरानी नहीं जाती !
ReplyDeleteलाजवाब कंबरी साहब ..........
नब्ज टटोलने की आपकी अदा काफी जुदा है... यकीनन
...
शुक्रिया राहुल
DeleteBahut uttam shbd aur rachna, nirasha v rosh se bhari hui.Kisi ne such likha hy ki ghum ko pacha lene ki himmat se bhi such nhi badlta hai .
ReplyDeleteधन्यवाद मलिक भाई
Deleteबहुत ही खूबसूरत शेरों से सजी है ये गज़ल ... लाजवाब ...
ReplyDeleteशुक्रिया नासवा दी
Delete"महल हैं, भीड़ है, मंदिर है, मस्जिद है, मशीनें हैं,
ReplyDeleteमगर फिरभी शहर से दूर वीरानी नहीं जाती !"......बहुत खूब
इस ग़ज़ल में तो दुष्यन्त कुमार जी का अक्स दिख रहा है ......मानो बेबसी चीख चीख कर कह रही हो -
"जिस तरह चाहे बजा लो इस सभा में,
हम नही हैं आदमी हम झुनझुने हैं"....
नि:शब्द कर दिया आपने
धन्यवाद अंजनी भाई
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