वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो
चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे!
जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे!
-रामधारी सिंह दिनकर
कालजयी रचना।
ReplyDeleteदिनकर जी की खूबसूरत कविता।
ReplyDeleteWow such great and effective
ReplyDeleteThank you so much for sharing this.
BhojpuriSong.in
very nice information
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29.8.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3442 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
ओज भरी रचना जिसके बारे में लिखना सूरज को दीपक दिखाने के सामान है | नमन राष्ट कवि
ReplyDeleteदिनकर जी को नमन ,अति उत्तम
ReplyDelete