याद करने का सिला मैं इस तरह पाने लगा
मुझको आईना तेरा चेहरा ही दिखलाने लगा
दिल की बंजर सी ज़मी पर जब तेरी दृष्टि पड़ी
ज़र्रा ज़र्रा खिल के इसका नाचने गाने लगा
ज़िस्म के ही राजपथ पर मैं जिसे ढूँढा सदा
दिलकी पगडंडी में पे वोही सुख नज़र आने लगा
हसरतों की इमलियाँ गिरती नहीं हैं सोच से
हौसला फ़िर पत्थरों का इनपे बरसाने लगा
रोक सकता ही नहीं हों ख्वाइशें जिसकी बुलंद
ख़ुद चढ़ा दरिया ही उसको पार पहुँचने लगा
तेरे घर से मेरे घर का रास्ता मुश्किल तो है
नाम तेरा ले के निकला सारा डर जाने लगा
बावरा सा दिल है मेरा कितना समझाया इसे
ज़िंदगी के अर्थ फ़िर से तुझ में ही पाने लगा
सोचने में वक्त "नीरज" मत लगाना भूल कर
प्यार क़ातिल से करो गर वो तुम्हे भाने लगा
-नीरज गोस्वामी
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में " मंगलवार 13 अगस्त 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (14-08-2019) को "पढ़े-लिखे मजबूर" (चर्चा अंक- 3427) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
नीरज जी, इमलियां हसरतों की अवश्य हैं परंतु जीभ को ललचा गईं , देर तक स्वाद रहा मन पर ।
ReplyDeleteवाह बेहतरीन
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
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