मुखर होना सीख रही हूँ ।
समझदारी के बटखरों से ,
शब्दों का वजन ।
मैं भी आज कल ,
तौलना सीख रही हूँ ।
रिक्त से कैनवास पर ,
इन्द्रधनुषी सी कोई तस्वीर ।
बिना रंगों की पहचान ,
उकेरना सीख रही हूँ ।
घनी सी उलझन की ,
उलझी सी गाँठों को ।
मन की अंगुलियों से ,
खोलना सीख रही हूँ ।
भ्रमित हूँ , चकित हूँ ,
दुनिया के ढंग देख कर ।
बन रही हूँ कुशल ,
नये कौशल सीख रही हूँ ।
भौतिक नश्वरता के दौर में ,
मैं भी आज कल ;
दुनियादारी सीख रही हूँ ।
लेखक परिचय - मीना भारद्वाज
बहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteव्वाहहहह..
ReplyDeleteसादर..
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15.8.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3428 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
"मौन रह कर मैं ,
ReplyDeleteमुखर होना सीख रही हूँ ।
समझदारी के बटखरों से ,
शब्दों का वजन ।
मैं भी आज कल ,
तौलना सीख रही हूँ ।
रिक्त से कैनवास पर ,..."
वाह!!! बहुत खूब। आपने यहाँ मेरे मन की बातों को उकेर दिया।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन स्वतंत्रता और रक्षा की पावनता के संयोग में छिपा है सन्देश : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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