Monday, January 7, 2019

मेरे पर निकलने लगते हैं..........राहत इन्दोरी

पुराने शहर के मंजर निकलने लगते है 
ज़मी जहा भी खुले, घर निकलने लगते है

मैं खोलता हूँ सदफ मोतियों के चक्कर में 
मगर यहाँ भी समन्दर निकलने लगते है 

हसीन लगते है जाडो में सुबह के मंजर 
सितारे धूप पहन कर जब निकलने लगते हैं 

बुरे दिनो से बचाना मुझे मेरे मौला 
करीबी दोस्त भी बचकर निकलने लगते हैं

बुलन्दियो का तसव्वुर भी खुब होता हैं 
कभी-कभी तो मेरे पर निकलने लगते हैं 

अगर ख्याल भी आए कि तुझको खत लिखू 
तो घोसले से कबूतर निकलने लगते हैं। 
- राहत इन्दोरी

9 comments:

  1. वाह!
    बड़ी राहत देती हैं राह तेरे रूह की ' राहत '!

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  2. वाह गजब! धाराप्रवाहता और भावों के साथ उम्दा संयोजन रहता है राहत साहब का।

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  3. वाह क्या खूब लिखतें हैं राहत साहब

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (08-01-2019) को "कुछ अर्ज़ियाँ" (चर्चा अंक-3210) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    नववर्ष-2019 की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. वाह, बहुत ही सुन्दर रचना

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  6. बहुत खूबसूरत रचना ।

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