Friday, May 25, 2018

चकल्लस...लक्ष्मीनारायण गुप्त

कभी सोचता हूँ
यह सारी चकल्लस
छोड़के दुनिया से
संन्यास ले लूँ

लेकिन क्या इससे
कोई फरक पड़ेगा
संन्यासी अपनी पुरानी
अस्मिता को नकार देता है
अपना ही श्राद्ध कर देता है

लेकिन फिर नया नाम लेता है
नई अस्मिता शुरू करता है
और वही मुसीबतें
वही चकल्लस फिर 
शुरू हो जाती हैं

पहले लाला सोहनलाल को
अपनी दूकान चलानी होती थी
अब सोहनानंद भारती को
अपना आश्रम चलाना होता है

जब तक ज़िन्दगी है
तब तक चकल्लस भी है
इस लिए जो भी कर रहे हो
करते रहो, करते रहो


-लक्ष्मीनारायण गुप्त
—-२२ मई, २०१८

5 comments:

  1. वाह बहुत खूब।
    चकल्लस।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (26-05-2017) को "उफ यह मौसम गर्मीं का" (चर्चा अंक-2982) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. वाह वाह जो भी हो करते रहो चकल्ल्स ....बहुत खूब

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