Saturday, February 29, 2020

काँच के पार तिरे हाथ नज़र आते हैं ...गुलज़ार

ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता 
मेरी तस्वीर भी गिरती तो छनाका होता 

यूँ भी इक बार तो होता कि समुंदर बहता 
कोई एहसास तो दरिया की अना का होता 

साँस मौसम की भी कुछ देर को चलने लगती 
कोई झोंका तिरी पलकों की हवा का होता 

काँच के पार तिरे हाथ नज़र आते हैं 
काश ख़ुशबू की तरह रंग हिना का होता 

क्यूँ मिरी शक्ल पहन लेता है छुपने के लिए 
एक चेहरा कोई अपना भी ख़ुदा का होता
-गुलज़ार

3 comments:

  1. ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता
    मेरी तस्वीर भी गिरती तो छनाका होता !!!

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  2. बेहतरीन प्रस्तुति 👌

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  3. वाह!! बहुत सुंदर!!! 👌👌👌

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