मैंने पत्थर में भी फूलों सी नज़ाकत देखी
पिस के सीमेंट बने, ऐसी शराफ़त देखी
थी तेज हवा, उनका आँचल गिरा गई
इस शहर ने उस रोज क़यामत देखी
'मर्ज कैसा भी हो, दो दिन में चला जायेगा'
तुमनें दीवार पर लिखी वो इबारत देखी?
क्या बेमिसाल जश्न मनाया था गए साल
उस विधायक की बड़ी जीत की दावत देखी?
अब एम ए भी भरा करते हैं चपरासियों के फार्म
हमारे देश में रोजगार की किल्लत देखी?
कितने शरीफ़ लगते थे अल्फ़ाज़ जिगर में,
अब कागज़ों पर इनकी शरारत देखी?
-कौशल शुक्ला
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में " सोमवार 9 सितम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-09-2019) को "स्वर-व्यञ्जन ही तो है जीवन" (चर्चा अंक- 3454) पर भी होगी।--
ReplyDeleteचर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
badhiya hai
ReplyDelete... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
ReplyDeletesmart outsourcing solutions is the best outsourcing training
ReplyDeletein Dhaka, if you start outsourcing please
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वाह बहुत खूब।
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