सम्हालो मुझे अब भी घर-बार में
कहीं दिल न लग जाय बाज़ार में
जब अपने मुक़ाबिल हूं तकरार में
ख़ुशी जीत में है न ग़म हार में
अरे मोजिज़ा हो गया आज तो
छपी है ख़बर सच्ची अख़बार में
सज़ा से ख़ता पूछती है ये क्या
बुराई थी इतनी गुनहगार में
गिरेबानो-दामन न हो जांय चाक
उलझ कर न रह जाना दस्तार में
क़लम के सिपाही का डर था कभी
क़लम की भी गिनती थी हथियार में
फ़रिश्ता नहीं एक इंसान हूं
कई खोट हैं मेरे किरदार में
ख़मोशी बग़ावत की तम्हीद है
छुपा खौफ़ होता है यलग़ार में
भला इस क़दर तेज़ चलना भी क्या
कि मंज़िल निकल जाय रफ़्तार में
मुलाक़ात ‘आज़म’ से मुश्किल नहीं
वो मिल जाता है अपने अशआर में
डॉ मुहम्मद आज़म 09827531331
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आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल गुरुवार (03-10-2013) को "ब्लॉग प्रसारण : अंक 135" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.
ReplyDeleteवाह !!! बहुत ही बढ़िया !
ReplyDeletebahut sundar .....
ReplyDeleteसुन्दर रचना। आभार।।
ReplyDeleteनई कड़ियाँ : ब्लॉग से कमाने में सहायक हो सकती है ये वेबसाइट !!
ज्ञान - तथ्य ( भाग - 1 )
ख़मोशी बग़ावत की तम्हीद है
ReplyDeleteछुपा खौफ़ होता है यलग़ार में
वाह