रात भर नींद
हल्के पत्ते सी तैरती है
आँखों के पोखरों में
वक़्त कर्मठ श्रमिक
गहरे करता जा रहा है
काले घेरे
भोर भारी है
किसी अनमनी गर्भिणी सी
घसीटती खुद को
जानते हुए एक और दिन होगा
मृत प्रसव
दिन लावारिस लाश सा
मर कर भी नहीं मरता
शोर और भीड़
उठा नहीं पाते
मेरे अकेलेपन की चट्टान
शाम सुन्न
शीतक्षत उँगलियों से
कब तक लिखे जायेंगे
अंधेरों के गीत
रात लौट आयी है
इतना ही है मेरी
उम्र क़ैद का दायरा
बहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteउम्दा
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