Thursday, June 7, 2018

दहलीज पर खड़ी औरत.....पद्मा मिश्रा


दहलीज पर खड़ी औरत,
क्या सोचती है ?
नम आँखों से निहारती
आकाश का कोना कोना,
उड़ने को आकुल -व्याकुल, 
पंख तौलती है,
तलाशती है राहें,मुक्ति के उस द्वार की,
स्वप्न भरी आँखें,
थामना चाहती हैं- क्षितिज के ओर छोर,
पर पांवों को लहूलुहान कर जाती हैं, 
परम्पराओं की बेड़ियाँ, 
दहलीज के इस ओर ...
उसका घर है, ममता है, ..जीवन का वर्तमान भी,
पर दहलीज के उस ओर ..
उसका स्वप्न पलता है, 
आगत भविष्य की रंगीनियाँ हैं, मुक्ति है,
और संभावनाओं का खुला आकाश भी,
पर यहीं पर रोकती हैं भावनाएं,
द्वंद्व सा मचता हृदय में, 
क्या करूँ उस मुक्ति का?
जो छीन लेगी पाँव के नीचे धरा?
और जब साँझ होगी, 
डूबता सूरज भी नहीं साथ होगा, 
तब अँधेरी कालिमा में,
कौन होगा साथ मेरे?
रोशनी बन कर नए प्रभात की ?
...और फिर कोर ..आँचल के भिगोती,
बालती दहलीज पर, एक दिया उम्मीद का, 
इस आस में ...
फिर कभी पंख पाकर उड़ सकूंगी,.
.साथ मेरे -घर,मेरे अपने मेरे सपने ..
,..मेरा संसार होगा ..
बस यही एक स्वप्न जीती जा रही है-
''दहलीज पर खड़ी औरत ''

-पद्मा मिश्रा

3 comments:

  1. नारी मन का अंतर आलाप कुछ निराशा कुछ समझोता ।
    अप्रतिम सुंदर अंतर द्वद उकेरती रचना ।

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  2. बहुत सुंदर रचना पद्मा जी.. स्त्री के मन की सही विवेचना है...शुभकामनाएँ

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-06-2018) को "शिक्षा का अधिकार" (चर्चा अंक-2995) (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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