Friday, June 1, 2018

सेदोका...............डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा


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रे कवि मन 
बस अब वीरों का 
कर अभिनन्दन 
भाए न मुझे 
बिंदिया या कजरे 
कंगन का वंदन।
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लें केसरिया 
गूँज उठे धरती 
केसरी -सा गर्जन 
जागें जो सोए 
शावक सिंहनी के 
डरे, विद्रोही मन।

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धवल कान्ति 
बने मन निर्मल 
सौम्य शांत उज्ज्वल 
तिरंगा मेरा 
जग में फहराए
सुख -शान्ति बढ़ाए।

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क्षमा सहेजें 
अनाचार गद्दार 
कभी नहीं स्वीकार,
उग्र तेज से 
रहे दीपित माथा 
लिखें गौरव गाथा।

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हरित हरे 
पीड़ाएँ जगती की 
तपती धरती की 
सुख समृद्धि 
बिखरे चहुँ ओर 
होए निशि से भोर।

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मै तारिका -सी 
मन आकाश दिपी 
उज्ज्वल औ शीतल 
मधुर गीत 
भाव भरा कोमल 
रुनझुन पायल।

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मेरी गोद में
छुपोगे अभी तुम 
यू आँचल पसारा, 
ममता कहे-
दुख की छाया न हो 
हाँ,सुख पा लो सारा।

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अनुरागिनी 
चाहा अनुराग से 
भरूँ मन तुम्हारा 
दूँ प्यार सारा 
अपनाते तो तुम 
सहज विश्वास से।

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जानोगे कब ?
मै हूँ तुम्हारे लिए 
प्रेम अमृत लिये
बना लो मुझे 
बस द्वार- तोरण
या आँगन की वृन्दा।

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तेजोमयी सी 
तेरे दिये ताप से 
जागरित हो गई
उदात्त हो या 
अनुदात्त हो तुम 
मै स्वरित हो गई।

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सुरभित- सी
पवन, ले अनंग
धरा पीत वसना
हे ऋतुराज!
कुहू, पिक पुकारे -
स्वागत है तुम्हारा!
-डॉ. ज्योत्सना शर्मा

7 comments:

  1. बहुत सुन्दर सृजन ।

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  2. सुन्दर अति सुन्दर अभिव्यक्ति ..ज्योत्स्ना जी सहज भाव जाग्रत करती

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-06-2018) को "अब वीरों का कर अभिनन्दन" (चर्चा अंक-2989) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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